ए के चौधरी
न्यूज़ पथ 24×7 संवाददाता
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23 जुलाई 2023
भारत की 26 प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने मंगलवार 18 जुलाई को बेंगलुरु में बैठक के बाद एक साझा बयान जारी किया था
इसमें विपक्षी दलों के गठबंधन ।।इंडिया।। ने देश में जातिगत जनगणना कराने की मांग की है,
भारत में जातिगत जनगणना की मांग दशकों पुरानी है, इसका मकसद अलग-अलग जातियों की संख्या के आधार पर उन्हें सरकारी नौकरी में आरक्षण देना और जरूरतमंदों तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाना बताया जाता है
माना जाता है कि बीजेपी को इस तरह की जनगणना से डर यह है कि इसे अगड़ी जातियों के उसके वोटर नाराज हो सकते हैं, इसके अलावा बीजेपी का परंपरागत हिंदू वोट बैंक इससे बिखर सकता है
जाने का फैसला किया था,
वहीं विपक्षी सामाजिक न्याय के नाम पर साल 2024 के चुनाव में जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाकर बीजेपी पर दबाव बनाने और दलित पिछल वोट बैंक को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहा है,
इससे पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने साल 2010=2011 मैं देश भर में आर्थिक सामाजिक और जातिगत जनगणना करवाई थी लेकिन इसके आंकड़े जारी नहीं किए गए थे,
इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई लेकिन इसके आंकड़े भी कभी सार्वजनिक नहीं किए गए,
*जाति जनगणना. मंडल राजनीति के तीसरे अवतार की दस्तक या बीजेपी के लिए चक्रव्यूह?
विपक्ष की मांग
जातियों की जनसंख्या के मुताबिक आरक्षण की मांग सबसे पहले 1980 के दशक में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम ने की थी यूपी की समाजवादी पार्टी भी जातिगत जनगणना की मांग करती रही है,
दक्षिण भारत की कई पार्टियां इस तरह की जनगणना की मांग करती रही है, जबकि बिहार सरकार ने इसी साल जातिगत सर्वेक्षण की शुरुआत कराई थी, लेकिन यह मामला फिलहाल कोर्ट में लंबित है,
इसी साल 7 जनवरी को बिहार सरकार ने राज्य जातीय सर्वे की प्रतिक्रिया की शुरुआत की थी लेकिन एक जनहित याचिका के जरिए यह मामला सुप्रीम कोर्ट और फिर पटना हाईकोर्ट पहुंच गया,
याचिकाकर्ता का कहना था कि बिहार में हो रहा जातीय सर्वेक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है क्योंकि इस तरह की जनगणना करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है,
नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के अलावा बिहार सरकार में शामिल राष्ट्रीय जनता दल,कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के अलावा विपक्षी गठबंधन।। इंडिया।। कई दल लंबे समय से जातिगत जनगणना के पक्ष में रहे हैं,
जातिगत जनगणना की बात आते ही अक्सर बहुत से चिंताएं और सवाल भी उठ खड़े होते हैं इनमें से एक बड़ी चिंता यह है कि इसकी आंकड़े के आधार पर देश भर में आरक्षण की नई मांग शुरू हो जाएगी,
पटना के एनएन सिन्हा इंस्टीट्यूट आफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं,।।विपक्षी दलों में सबसे पहले यह मांग बिहार में आरजेडी के तेजस्वी यादव ने की थी और इसका विरोध बीजेपी भी नहीं कर पाई।।
डीएम दिवाकर के मुताबिक इस तरह की जनगणना से वास्तविक आंकड़े सामने आएंगे और इससे उस वर्ग को फायदा होगा जो विपक्ष के बड़े वोटर हैं इससे विपक्ष को भी चुनावी फायदा होगा,
• लालू यादव जातियों की जनगणना से आखिर क्या हासिल करना चाहते है ?
,हिंदू वोट बैंक पर असर ?
कांग्रेस पार्टी के कई बड़े नेताओं ने हाल के समय में जातिगत जनगणना के मुद्दे को जोर शोर से उठाया है,
जातिगत जनगणना के साथ एक नारा भी लगाया जाता है ।।जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी।।
राहुल गांधी ने इसी साल कर्नाटक विधानसभा चुनाव के प्रचार दौरान एक रैली में पिछड़े, दलित और आदिवासियों के विकास के लिए जातिगत जनगणना की मांग की थी और यही नारा लगाया था,
राहुल गांधी ने 2011 जातिगत जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने और पिछड़े वर्ग,दलित और आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण देने की मांग भी की थी,
दरअसल जातिगत संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग मांग कर विपक्ष दलितों और पिछड़ों के बड़े वोट बैंक को अपने पक्ष में लाना चाहता है, इससे बीजेपी के कथित हिंदू वोट बैंक को भी कमजोर किया जा सकता है
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा के मुताबिक ।।बीजेपी नहीं चाहती कि जातिगत जनगणना हो,उनको पता है कि जो पिछड़े हैं उनकी जनसंख्या ज्यादा होगी बीजेपी को लगता है कि इससे अगडी जाति का उसका वोट बैंक नाराज हो जाएगा,
विपक्षी संख्या के आधार पर सरकारी नौकरी में हिस्सेदारी की बात करती है जबकि दूसरी तरफ यह भी आरोप लगता है कि सरकार नौकरियों में कटौती कर रही है ऐसे में उसकी मांग का कितना असर होगा?
विनोद शर्मा कहते हैं ।।यह सब बातें आपके और हमारे लिए हैं,पिछड़ों को बर्तन में पानी भरकर चांद दिखाया जा रहा है बच्चा इस तरह की चांद से खेलते खेलते सो जाता है,
हालांकि इलाहाबाद के गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर बद्री नारायण इस मांग का बहुत ज्यादा असर नहीं देखते,
उनका कहना है ।।इस मांग का दवा भले ही बीजेपी पर पड़े लेकिन चुनाव में यह बहुत असरदार होगा, ऐसा नहीं लगता जो लोग हाशिय पर उनका केवल पढ़ा-लिखा तबका है इस तरह की मांग से, खुद जोड़ता है।।
• ।।ओबीसी बिल में ऐसा क्या है कि कोई भी पार्टी इससे असहमत नहीं।।
बीजेपी पर दबाव
बद्रीनारायण के मुताबिक गरीब दलित पिछड़ों की बड़ी आबादी के लिए रोजाना जिंदगी की जरूरत है और रोजी रोटी का सवाल ज्यादा बडा है इसमें सरकार की योजनाएं अपना काम करेगी ना की आरक्षण,
हालांकि दिवाकर इसमें विपक्षी एक बड़ी राजनीतिक देखते हैं उनका मानना है कि जातिगत जनगणना कराने से कई तरह के आंकड़े सामने आएंगे इसके लिए केंद्र सरकार जनगणना ही नहीं करा रही है जो कि साल 2021 में हो जानी थी,
डीएम दिवाकर कहते हैं सारे विपक्ष को मौका मिला है इसलिए वह गोलबंद हो कर इस मुद्दे को उठा रहे जनगणना कराने से बेरोजगारी एनएसएसओ के आंकड़े शिक्षा, स्वास्थ्य, किसान की आत्महत्या, कोविड-मैं हुए जान माल का नुकसान, नोटबंदी और देश की अर्थव्यवस्था पर परै असर के वास्तविक आंकड़े भी बाहर आ जाएं इसी का डर बीजेपी को है,
साल 2021 की जनगणना अगर शाहपुर हो जाती तो इससे मिलने वाले आंकड़े साल 2011_ 21 के बीच होते हैं और इसमें ज्यादातर कार्यकाल मोदी सरकार का ही है,
डीएम दिवाकर कहते हैं जनगणना के मुद्दे पर बीजेपी फस गई है इससे जो भी नकारात्मक आकडे सामने आएंगे उसकी जिम्मेदारी बीजेपी को होगी,
डीएम दिवाकर के मुताबिक आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत समेत बीजेपी के कई नेता समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा की बात करते हैं,
ऐसे में जातिगत जनगणना से जो आंकड़े सामने आएंगे उसका दबाव बीजेपी के ऊपर होगा विपक्ष इस बात को समझता है और इसलिए उसने जातिगत जनगणना की मांग की है ताकि चुनाव में इसका फायदा उठा सकें,
हालांकि बद्रीनारायण का मानना है कि विपक्षी दोनों को लगता है कि वो जातिगत जनगणना को बड़ा मुद्दा बना लेंगे लेकिन यह आसान नहीं होगा, इसके लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी होगी,
वरिष्ठ पत्रकार बद्रीनाथ के मुताबिक जातिगत समीकरण को तोड़ने के लिए आप बहुत सारे विकल्प हैं जैसे गरीब के लिए कल्याणकारी योजनाएं यानी इस तरह के उनको अपने पक्ष में करना ज्यादा आसान है,
•राजनीतिक फांस बनी जातिगत जनगणना
जनगणना का इतिहास
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना कराने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी.
अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज किया गया.
आज़ादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया.
तब से लेकर भारत सरकार ने नीतिगत फ़ैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज़ किया है.
लेकिन 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ जिनकी राजनीति जाति पर आधारित थी.
इन दलों ने तथाकथित ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ तथाकथित निचली जातियों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान शुरू किया.
साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था.
मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की थी. लेकिन इस सिफ़ारिश को 1990 में लागू किया जा सका. इसके बाद देशभर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए थे.
चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए.
आख़िरकार साल 2010 में बड़ी संख्या में सांसदों की मांग के बाद सरकार इसके लिए राज़ी हुई थी.
जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया था कि 2011 में की गई सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की उसकी कोई योजना नहीं है.
सरकार के मुताबिक़ इस जनगणना में कई तरह की विसंगतियां थीं.
23 जुलाई 2023
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